2015, മേയ് 28, വ്യാഴാഴ്‌ച

उदय प्रकाश ,
हिन्दी कविता में उन आवाज़ों के गायक हैं जिन्हें देश में आज़ादी के बाद भी लगातार अनसुना किया जाता रहा है । बेहद सधी हुई भाषा में वे निशाने पर चोट करने वाले कवि हैं । उदय प्रकाश को हिन्दी कविता की लम्बी परम्परा में एक ज़रूरी कड़ी के रूप में पढ़ा जाना चाहिए । इनके काव्य-संसार का पर्यावरण सम्मोहक फूलों से लदा-फ़दा भले न हो पर यक़ीनन यहां जीवन की अनूठी छवियां हैं । उदय प्रकाश जैसा कवि ही कविता में कह सकता है , "ख़ासियत है दिल्ली की / कि यहाँ कपड़ों के भी सूखने से पहले / सूख जाते हैं आँसू"। यहां एक साथ उदय प्रकाश की चुनिन्दा कविताएं:

1. डाकिया

डाकिया
हांफता है
धूल झाड़ता है
चाय के लिए मना करता है
डाकिया
अपनी चप्पल
फिर अंगूठे में संभालकर
फँसाता है
और, मनीआर्डर के रुपये
गिनता है.

2.  दिल्ली

समुद्र के किनारे
अकेले नारियल के पेड़ की तरह है
एक अकेला आदमी इस शहर में.समुद्र के ऊपर उड़ती
एक अकेली चिड़िया का कंठ है
एक अकेले आदमी की आवाज़
कितनी बड़ी-बड़ी इमारतें हैं दिल्ली में
असंख्य जगमग जहाज
डगमगाते हैं चारों ओर रात भर
कहाँ जा रहे होंगे इनमें बैठे तिज़ारती
कितने जवाहरात लदे होंगे इन जहाजों में
कितने ग़ुलाम
अपनी पिघलती चरबी की ऊष्मा में
पतवारों पर थक कर सो गए होगे.ओनासिस ! ओनासिस !यहाँ तुम्हारी नगरी में
फिर से है एक अकेला आदमी

3. मारना
आदमी मरने के बाद
कुछ नहीं सोचता
आदमी मरने के बाद
कुछ नहीं बोलता
कुछ नहीं सोचने
और कुछ नहीं बोलने पर
आदमी मर जाता है ।
 

4. दो हाथियों की लड़ाई

दो हाथियों का लड़ना
सिर्फ़ दो हाथियों के समुदाय से
संबंध नहीं रखता दो हाथियों की लड़ाई में
सबसे ज़्यादा कुचली जाती है
घास, जिसका
हाथियों के समूचे कुनबे से
कुछ भी लेना-देना नहीं जंगल से भूखी लौट जाती है गाय
और भूखा सो जाता है
घर में बच्चा
चार दांतों और आठ पैरों द्वारा
सबसे ज़्यादा घायल होती है
बच्चे की नींद,सबसे अधिक असुरक्षित होता है
हमारा भविष्य
दो हाथियों कि लड़ाई में
सबसे ज़्यादा
टूटते हैं पेड़
सबसे ज़्यादा मरती हैं
चिड़ियां
जिनका हाथियों के पूरे कबीले से कुछ भी
लेना देना नहीं
दो हाथियों की लड़ाई को
हाथियों से ज़्यादा
सहता है जंगल
और इस लड़ाई में
जितने घाव बनते हैं
हाथियों के उन्मत्त शरीरों पर
उससे कहीं ज़्यादा
गहरे घाव
बनते हैं जंगल और समय
की छाती पर 'जैसे भी हो
दो हाथियों को लड़ने से रोकना चाहिए '


5. दुआ

हुमायूँ ने दुआ की थी
अकबर बादशह बने
अकबर ने दुआ की थी
जहाँगीर बादशाह बने
जहाँगीर ने दुआ की थी
शाहजहां बादशाह बने
बादशाह हमेशा बादशाह के लिए
बादशाह बनने की दुआ करता है
लालक़िले का बूढ़ा दरबान
बताता है ।

6. अर्ज़ी

शक की कोई वज़ह नहीं है
मैं तो यों ही आपके शहर से गुज़रता
उन्नीसवीं सदी के उपन्यास का कोई पात्र हूँ
मेरी आँखें देखती हैं जिस तरह के दॄश्य, बेफ़िक्र रहें
वे इस यथार्थ में नामुमकिन हैं
मेरे शरीर से, ध्यान से सुनें तो
आती है किसी भापगाड़ी के चलने की आवाज़
मैं जिससे कर सकता था प्यार
विशेषज्ञ जानते हैं, वर्षों पहले मेरे बचपन के दिनों में
शिवालिक या मेकल या विंध्य की पहाड़ियों में
अंतिम बार देखी गई थी वह चिड़िया
जिस पेड़ पर बना सकती थी वह घोंसला
विशेषज्ञ जानते हैं, वर्षों पहले अन्तिम बार देखा गया था वह पेड़
अब उसके चित्र मिलते हैं पुरा-वानस्पतिक क़िताबों में
तने के फ़ासिल्स संग्रहालयों में
पिछले सदी के बढ़ई मृत्यु के बाद भी
याद करते हैं उसकी उम्दा इमारती लकड़ी
मेरे जैसे लोग दरअसल संग्रहालयों के लायक भी नहीं हैं
कोई क्या करेगा आख़िर ऎसी वस्तु रखकर
जो वर्तमान में भी बहुतायत में पाई जाती है
वैसे हमारे जैसों की भी उपयोगिता है ज़माने में
रेत घड़ियों की तरह हम भी
बिल्कुल सही समय बताते थे
हमारा सेल ख़त्म नहीं होता था
पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण हमें चलाता था
हम बहुत कम खर्चीले थे
हवा, पानी, बालू आदि से चल जाते थे
अगर कोयला डाल दें हमारे पेट में
तो यक़ीन करें हम अब भी दौड़ सकते हैं ।

7. मैं लौट जाऊंगा

क्वाँर में जैसे बादल लौट जाते हैं
धूप जैसे लौट जाती है आषाढ़ में
ओस लौट जाती है जिस तरह अंतरिक्ष में चुपचाप
अंधेरा लौट जाता है किसी अज्ञातवास में अपने दुखते हुए शरीर को
कंबल में छुपाए
थोड़े-से सुख और चुटकी-भर साँत्वना के लोभ में सबसे छुपकर आई हुई
व्याभिचारिणी जैसे लौट जाती है वापस में अपनी गुफ़ा में भयभीत
पेड़ लौट जाते हैं बीज में वापस
अपने भांडे-बरतन, हथियारों, उपकरणों और कंकालों के साथ
तमाम विकसित सभ्यताएँ
जिस तरह लौट जाती हैं धरती के गर्भ में हर बार
इतिहास जिस तरह विलीन हो जाता है किसी समुदाय की मिथक-गाथा में
विज्ञान किसी ओझा के टोने में
तमाम औषधियाँ आदमी के असंख्य रोगों से हार कर अंत में जैसे लौट
जाती हैं
किसी आदिम-स्पर्श या मंत्र में
मैं लौट जाऊंगा जैसे समस्त महाकाव्य, समूचा संगीत, सभी भाषाएँ और
सारी कविताएँ लौट जाती हैं एक दिन ब्रह्माण्ड में वापस
मृत्यु जैसे जाती है जीवन की गठरी एक दिन सिर पर उठाए उदास
जैसे रक्त लौट जाता है पता नहीं कहाँ अपने बाद शिराओं में छोड़ कर
निर्जीव-निस्पंद जल
जैसे एक बहुत लम्बी सज़ा काट कर लौटता है कोई निरपराध क़ैदी
कोई आदमी
अस्पताल में
बहुत लम्बी बेहोशी के बाद
एक बार आँखें खोल कर लौट जाता है
अपने अंधकार मॆं जिस तरह ।


8. सहानुभूति की मांग

आत्मा इतनी थकान के बाद
एक कप चाय मांगती है
पुण्य मांगता है पसीना और आँसू पोंछने के लिए एक
तौलिया
कर्म मांगता है रोटी और कैसी भी सब्ज़ी
ईश्वर कहता है सिरदर्द की गोली ले आना
आधा गिलास पानी के साथ
और तो और फकीर और कोढ़ी तक बंद कर देते हैं
थक कर भीख मांगना
दुआ और मिन्नतों की जगह
उनके गले से निकलती है
उनके ग़रीब फेफड़ों की हवा
चलिए मैं भी पूछता हूँ
क्या मांगूँ इस ज़माने से मीर
जो देता है भरे पेट को खाना
दौलतमंद को सोना, हत्यारे को हथियार,बीमार को बीमारी, कमज़ोर को निर्बलता
अन्यायी को सत्ता
और व्याभिचारी को बिस्तर
पैदा करो सहानुभूति
कि मैं अब भी हँसता हुआ दिखता हूँ
अब भी लिखता हूँ कविताएँ।

9. किसका शव


यह किसका शव था यह कौन मरा
वह कौन था जो ले जाया गया है निगम बोध घाट की ओर
कौन थे वे पुरुष, अधेड़
किन बच्चों के पिता जो दिखते थे कुछ थके कुछ उदास
वह औरत कौन थी जो रोए चली जाती थी
मृतक का कौन-सा मूल गुण उसके भीतर फाँस-सा
गड़ता था बार-बार
क्या मृतक से उसे वास्तव में था प्यार
स्वाभाविक ही रही होगी, मेरा अनुमान है, उस स्वाभाविक मनुष्य की मृत्यु
एक प्राकृतिक जीवन जीते हुए उसने खींचे होंगे अपने दिन
चलाई होगी गृहस्थी कुछ पुण्य किया होगा
उसने कई बार सोचा होगा अपने छुटकारे के बारे में
दायित्व उसके पंखों को बांधते रहे होंगे
उसने राजनीति के बारे में भी कभी सोचा होगा ज़रूर
फिर किसी को भी वोट दे आया होगा
उसे गंभीरता और सार्थकता से रहा होगा विराग
सात्विक था उसका जीवन और वैसा ही सादा उसका सिद्धान्त
उसकी हँसी में से आती होगी हल्दी और हींग की गंध
हाँलाकि हिंसा भी रही होगी उसके भीतर पर्याप्त प्राकृतिक मानवीय मात्रा में
वह धुन का पक्का था
उसने नहीं कुचली किसी की उंगली
और पट्टियाँ रखता था अपने वास्ते
एक दिन ऊब कर उसने तय किया आख़िरकार
और इस तरह छोड़ दी राजधानी
मरने से पहले उसने कहा था...परिश्रम, नैतिकता, न्याय...एक रफ़्तार है और तटस्थता है दिल्ली में
पहले की तरह, निगम बोध के बावजूद
हवा चलती है यहाँ तेज़ पछुआ
ख़ासियत है दिल्ली की
कि यहाँ कपड़ों के भी सूखने से पहले
सूख जाते हैं आँसू।

10. तीन वर्ष


मैं तुम्हें पिछले
तीन वर्षों से जानता हूँ
तीन वर्ष इतनी जल्दी नहीं होते
जितनी जल्दी कह दिए जाते हैं
तीन वर्षों में
कलम में आम लग जाते हैं
सामने की छत पर
दोपहर कंघी करने वाली लड़की
कहीं ग़ायब हो जाती है
स्कूल में निरंजन मास्साब
सामाजिक संरचना में "शिक्षा का मूल्य
 (प्राइस टैग) और मूल्य परक (वैल्यूबेस्ड ) शिक्षा" (कांटेस्ट)

“ज्ञानम् मनुष्यम तृतीयं नेत्रम् समस्त तत्वार्थ विलोकम दक्षम्” वेद में ज्ञान को तीसरा नेत्र माना गया है .भत्तृहरि ने अपने नीतिशतक में लिखा है-विद्या विहीन:पशु:.बच्चों को शिक्षित करना माता -पिता अपना पुनीत कर्तव्य समझते थे.यह एक श्लोक से विदित है….
“माता शत्रु पिता बैरी,येन बालो ना पाठितः
ना शोभते सभा मध्ये,हंस मध्ये बको यथा.
“देश का भविष्य उसकी कक्षाओं में निर्मित हो रहा है”वाक्य के साथ अपनी रिपोर्ट प्रारम्भ करते हुए कोठारी आयोग राष्ट्रीय विकास को शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बताया था .क्या शिक्षा सिर्फ उच्च शिक्षा शुल्क के दम पर ही राष्ट्रीय विकास कर पायेगी या अल्प शुल्क के दम पर मूल्यपरक शिक्षा राष्ट्रीय विकास की राह तय करेगी. शिक्षा व्यक्ति विकास के साथ सामाजिक राष्ट्रीय और वैश्विक विकास की भी प्रथम अनिवार्य शर्त है.यह सच है कि शिक्षा एक सातत्य है परन्तु पुरानी परिपाटी को नई दिशा देने के क्रम में सर्वाधिक प्रयोग जिस क्षेत्र में किये जाते हैं सम्भवतः वह शिक्षा ही है और “मर्ज़ बढता जाए ज्यों-ज्यों दवा की”की कहावत को चरितार्थ करता हुआ रुग्ण यह क्षेत्र कई विसंगतियों समस्याओं से आज भी जूझ रहा है.जिसमें सर्वाधिक मुख्य समस्या इसका दोराहे पर खड़ा होना है जहां अभिभावक स्वयं को दिग्भ्रमित पाता है.ये दोराह है एक…शिक्षा का उच्च मूल्य दर(प्राइस टैग) और दूसरा मूल्य परक(वैल्यू बेस्ड ) शिक्षा का अभाव .वर्त्तमान शिक्षा की व्यथा मैथिली शरण गुप्त जी ने कुछ इस प्रकार व्यक्त की थी….

हाँ,आज शिक्षा काल भी संकीर्ण होकर क्लिष्ट है
कुलपति सहित उन गुरूकुलों का ध्यान भी अवशिष्ट है
बिकने लगी विद्या यहाँ यदि शक्ति हो तो क्रय करो
यदि शुल्क आदि ना दे सको तो मूर्ख होकर ही मरो
ऐसी अवस्था में कहो वे दीन कैसे पढ़ सकें
इस और वे लाखों अकिंचन किस तरह बढ़ सकें.
शिक्षा प्राइस टैग से जुड़ती जा रही है.तीव्रता से खुलने वाले पब्लिक स्कूल जो अपने नाम से यह आभास कराते हैं कि शायद ये सभी वर्ग के बच्चों के लिए स्थापित होंगे पर यह ‘आँख के अंधे नाम नयनसुख ‘वाली बात ही है.इनमें से कुछ तो अभिजात्य वर्ग की पहुँच तक ही सीमित है.दरअसल यह मैकाले की शिक्षा नीति ( एक ऐसा वर्ग जो रक्त और रंग में भारतीय हो पर नैतिकता और विवेक में अँगरेज़ )के अवशिष्ट के रूप में ही हैं .इन पब्लिक स्कूल में ऊंची दरों में वसूला जाने वाला शिक्षा शुल्क और पठन-पाठन का अंग्रेज़ी माध्यम दोनों ही भारत की आधी से ज्यादा आबादी के हितों के विपरीत है.इन विद्यालयों के उच्च स्तर,उच्च परम्पराएं(भव्य वार्षिकोत्सव,विशेष अतिथि आगमन,बड़े-सेमीनार इत्यादि)समाज के अभिजात्य वर्ग को अलग पहचान देते हैं तो दूसरी तरफ मध्य वर्ग को स्टेटस सिंबल के रूप में आकृष्ट करते हैं और येन केन प्रकारेण वे भी अपने बच्चों को इन्ही विद्यालयों में प्रवेश दिलाने की कोशिश करते हैं.
ऐसा नहीं है कि इन विद्यालयों में मूल्यों की शिक्षा नहीं दी जाती है.इस तरह के कुछ विद्यालयों की छात्रावास व्यवस्था बच्चों में आत्मनिर्भरता,आत्मविश्वास,शारीरिक श्रम की आदत विकसित करती है जो वे घरों में शायद ही सीख पाते समाज के प्रति कार्य इन्हे सामाजिक सरोकारों से जोड़े रखते हैं ;हाउस प्रणाली,प्रीफेक्ट आदि व्यवस्थाएं छात्र अधिकारी के रूप में बच्चों में नेतृत्व गुण विकसित करते हैं.उच्च कोटि के अनुशासन और उत्तम आधारभूत संरचनाओं की उपलब्धता शिक्षण में व्यवधान आने नहीं देती . परन्तु प्रश्न फिर भी वही कि क्या नियमित,संयमित,स्वानुशासित जीवन ,परोपकार,आज्ञां पालन,स्वावलम्बन,अध्यवसाय,कर्तव्यपरायणता रचनात्मकता,स्वास्थय,स्वच्छता,पर्यावरण के प्रति सजगता के मूल्यों से अभिभूत शिक्षा के लिए ऊंचे शिक्षा शुल्क वाले विद्यालय ही अनिवार्य शर्त है ?बटेन्ड रसेल ने तो कह दिया था “पब्लिक स्कूल बच्चे को बन्दूक की नोक तथा अपनी पाशविक प्रवृत्तियों के आधार पर काम करना सीखाते हैं.”एक तरफ गुणों का विकास होता है तो दूसरी तरफ विद्यार्थियों में दंम्भ,उच्च भावना ग्रंथि जैसी प्रवृत्तियों का अनायास ही विकास हो जाता है.अधिकाधिक संसाधनों से युक्त ये विद्यार्थी भी कभी-कभी आधुनिक तकनीक संसाधनों का गलत इस्माल करना ,दूसरों पर अनावश्यक आतंक ज़माना ,अपने अभिभावक के सामाजिक रूतबे का रौब दिखाने जैसी प्रवृत्तियों का शिकार हो जाते हैं .स्कूल प्रबंधन चूँकि ऐसे अभिभावकों के रूतबे से भयभीत रहता है अतः विद्यार्थियों के नैतिक अवमूल्यन को जान-बूझ कर अनदेखा कर देता है जो देश और समाज के लिए घातक साबित हो जाता है. कभी-कभी यह भी पाया जाता है कि झूठे दम्भ पाले ये विद्यार्थी वास्तविक ज़िंदगी के कठोर धरातल पर लड़खड़ाते व्यक्तित्व की चोट बर्दाश्त नहीं कर पाते.कहीं पढ़ी हुई चार पंक्तियाँ याद आ रही हैं…
यदि आज की शिक्षा किसी विधि प्राप्त भी कुछ कर सको
तो बहुत है बस क्लर्क बनकर पेट अपना भर सको
लिखते रहो जो सर झुका सुन अफसरों की गालियां
तो दे सकेंगी रात को दो रोटियां घर वालियां..
आज समाज की दिशाहीनता का सर्वप्रथम कारण शिक्षा की दिशाहीनता है शिक्षा और राष्ट्र विकास में कोई समन्वय नहीं है.महंगे विद्यालयों में भी शिक्षा प्राप्त विद्यार्थी जब वास्तविक दुनिया में कदम रखता है तो स्वयं को ठगा महसूस करता है क्योंकि शिक्षा उसे जीवन से जोड़ ही नहीं पाती और वह हताश ,निराश होकर असामाजिक गतिविधियों में लिप्त हो जाता है जो उसके साथ-साथ सामाज को भी रसातल में ले जाता है…. यदि परिवार के सदस्य ही अनुशाषण हीन हैं,समाज की व्यवस्था अत्यंत विशृंखल और संघर्षपूर्ण है,यदि राज्याधिकारी परस्पर तथा समाज के विरूद्ध दिशा में क्रियाशील होते हैं तो विद्यार्थी से विनयी और मूल्यों का अनुकरण करने की अपेक्षा करना बेमानी है. वर्त्तमान भारतीय समाज में कमोबेश उपरोक्त स्थिति विद्यमान है …एक तरफ परिवार का संयुक्त से एकल संरचना की ओर उन्मुख होना तो दूसरी तरफ अमीर-गरीब के बीच चौड़ी होती खाई ,देश के रहनुमाओं की परस्पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति तो दूसरी तरफ बाज़ारीकरण से प्रभावित शिक्षा पद्धति .आज का विद्यार्थी अपने वर्त्तमान के प्रति आक्रान्त ,भविष्य के प्रति सशंकित है वह दिग्भ्रमित है .ऐसे हालात में ज़रुरत है उचित मूल्यों के दर पर आधारित परम्पराओं और आधुनिकीकरण के समन्वय वाली ज्ञान और मूल्य की शिक्षा जो विद्यार्थी को उसके अस्तित्व का महत्व समझा सके.
व्यवसायीकरण और तकनीक विकास के वर्त्तमान युग में ‘वैश्विक गाँव ‘ की उभरती अवधारणा ने एक यह विचार फैला दिया कि अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े विद्यार्थी ही उच्च पदासीन हो सकते हैं जबकि सरकारी विद्यालयों से हिंदी माध्यम से पढ़े विद्यार्थियों ने भी सफलता के कई मुकाम हासिल किये हैं और कर रहे हैं.यह ज़रूर है कि कम शिक्षा शुल्क वाले सरकारी विद्यालयों में आधारभूत संरचनाओं का विकास,शिक्षकों के व्यवसायिक प्रशिक्षण ,विज्ञानशिक्षा,तकनीक शिक्षा,कार्यानुभव,का तीव्रता से विकास कर एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था तैयार की जा सकती है जिसमें मितव्ययता के साथ सांस्कृतिक परम्पराओं और आधुनिकीकरण का समन्वय हो सकेगा.बहुत सम्भव है कि तब अभिभावक पब्लिक स्कूल के मोहजाल में नहीं फंसेंगे.
दरअसल हम भूल जाते हैं कि शिक्षा सर्वप्रथम तो व्यवहार परिष्करण है.(KASUDVBp )के सात इंद्रधनुषी रंगों(Knowledge, attitude ,Skill, Understanding, Discipline, Value, Behavioural pattern) को जिस विद्यार्थी ने जीवन के कैनवास में बिखेर दिया उसकी ज़िंदगी कभी रंगहीन नहीं हो सकेगी…और इन सात रंगों का उच्च शिक्षा शुल्क से किंचित मात्र भी सम्बन्ध नहीं.महात्मा गांधी जी ने कहा था,“जो शिक्षा चित्त शुद्धि ना करे,मन इंद्रियों को वश में रखना ना सिखाए,निर्भयता और स्वावलम्बन ना दे,निर्वाह का साधन ना बताए,गुलामी से मुक्ति दिलाकर स्वतंत्र रहने का उत्साह और शक्ति ना उत्पन्न कर सके उस शिक्षा में कितनी ही जानकारी का खजाना ,तार्किक कुशलता और भाषा पांडित्य हो वह शिक्षा नहीं है.”
शिक्षा में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह व्यक्ति के जीवन आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं से सम्बंधित हो .प्राइस टैग के बिना भी शिक्षा विद्यार्थी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास कर समाज का सर्वागीण अभ्युत्थान कर सकती है .इसके लिए सरकार को गाँव-गाँव में आधुनिक तकनीक और मूल्यों से युक्त शिक्षण -प्रशिक्षण के लिए अधिकाधिक विद्यालय खोलने चाहिए जो भारतीयों को विचार स्वातंत्रय,तार्किक बुद्धि,स्वाभिमान,आत्मविश्वास तथा प्रासंगिक ज्ञान के साथ वैश्विक मंच पर खड़ा कर सके.
आधुनिक समाज की दो मुख्य विशेषताएं हैं -प्रथम ,ज्ञान सूचना का प्रस्फुटन और दूसरा सामाजिक परिवर्तन की तीव्रगति.
इन दोनों ही परिवर्तनों के साथ कदम मिलाकर चलने वाली शिक्षा की अनिवार्य शर्त है मूल्यपरक शिक्षा .ज्ञान के विस्फोट के कारण आज शिक्षा सक्रिय रूप से स्वयं खोज कर प्राप्त होने की ओर बढ़ रही है.अतः आवश्यक है कि ऐसा मूल्यपरक वातावरण हो जो विद्यार्थियों में सही ज्ञान के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करे,उसकी सही मनोवृत्तियों का निर्माण करे ताकि वह स्वतंत्र हो तब भी जीवन के विषय में एक सही स्वस्थ सोच के साथ निर्णय ले सके.अपने स्व को समझे ,जीवन के अर्थ को समझे …कि जीवन में ऊंचाइयों के साथ जीवन में गहराइयाँ भी ज़रूरी हैं.ज्ञान कितना है यह उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना कि उस ज्ञान का सही उपयोग कितना है और ज्ञान तो पूरे ब्रह्मांड में प्रकृति के कण-कण में बगैर किसी प्राइस टैग के बसा है.अगर ऐसा ना होता तो अब्दुल कलाम जी जैसे कई प्रतिभावान के नाम से भी हम अनभिज्ञ होते .शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए आवश्यकता इस बात की है कि उपलब्ध संसाधनों का युक्तिपूर्ण उपयोग कर अपनी असीम सम्भावनाओं को पहचान कर उसे स्वहित,समाजहित,राष्ट्रहित और विश्वहित के लिए उपयोगी और उत्पादक बना दे. और साथ ही एक मूल्य परक समाज की स्थापना में भी कारगर भूमिका निर्वाह करे.ताकि विक्षुब्ध होकर फिर किसी कवि को यह ना कहना पड़े…
शिक्षे !तुम्हारा नाश हो
जो नौकरी हित ही बनी.”

പുതിയ വിദ്യാലയ വര്‍ഷത്തിലേയ്ക്കു പദമൂന്നുന്ന 

കൊച്ചു കൂട്ടുകാര്‍ക്കും അദ്ധ്യാപകര്‍ക്കും 

ഹൃദയം നിറഞ്ഞ

പുതുവത്സരാശംസകള്‍......