टिप्पणी
टूटा
पहिया
श्री
धर्मवीर भारति बहुमुखी प्रतिभा
संपन्न साहित्यकार है। वे
प्रयोगवादी कवि के रूप में
विख्यात है। टूटा पहिया श्री.
धर्मवीर
भारति की बहुचर्चित कविता
है। महाभारत की कथा में वर्णित
अभिमन्यु के रथ का ‘टूटा पहिया’
कवि की दृष्टि में टूटे हुए
मन का प्रतीक बन गया है । आधुनिक
संदर्भ में वह व्यक्ति जो
अन्याय के सामने नतमस्तक है,
शौर्यहीन
है,
उसके
लिए यह टूटा व्यक्ति भी नवीन
युग के निर्माण का आश्रय बन
सकता है,
इन
संभावनाओं के मध्य कवि की
आस्थावादी दृष्टि इस तरह प्रकट
की है-
कवि
के मत में यह युग अंधा है। टूटे
पहिए का प्रतीकात्मक चित्रण
करके कवि ने संकेत किया है कि
आज संसार में सर्वत्र मानव
मूल्यों का अभाव है। सारे मानव
मूल्य टूट गए हैं। फिर भी कवि
निराश नहां है। कवि का विश्वास
है कि पतन के गर्भ में जानेवाली
दुनिया को ये जर्जर मूल्य ही
सहायक सिद्ध होंगे। टूटा पहिया
कविता में यही आसावादी स्वर
मुखरित हुआ है।
कवि
कहते हैं कि मैं रथ (जीवन)
का
टूटा पहिया (टूटा
हुआ मानव मूल्य)
हूँ।
लेकिन मुझे फेंको मत। क्यों
कि शोषण और पीड़न से संत्प्त
कोई दुस्साहसी अभिमन्यु(साधारण
जन)
मुझे
अपने हाथ में लेगा। हो सकता
है वह अक्षौहिणी सेनाओं को
(अत्याचारी
शोषकों को)
चुनौती
देता हुआ शोषण-पीड़न
की व्यवस्था का शिकार हो जाए।
महाभारत
युद्ध में अधर्म और अत्याचार
का विरोध करते हुए दुस्साहसी
अभिमन्यु ने टूटे पहिए से
कौरवों की अक्षौहिणी सेनाओं
का सामना किया था। उसी तरह
अधर्म का विरोध करने केलिए
साधारण जनता आगे आएगी,
इस
आशय का संकेत कवि ने इन पंक्तियों
में दिया है।
अपने
पक्ष को असत्य जानते हुए भी
महाभारत युद्ध में बड़े-बड़े
महारथी मिलकर निरायुध अभिमन्यु
पर आक्रमण किया था। किसी ने
अभिमन्यु की असहाय आवाज़ पर
ध्यान नहीं दिया। तब मैं (मानव
मूल्य)
टूटा
पहिया बनकर आभिमन्यु के हाथ
का हतियार बना था (अभिमन्यु
ने रथ के टूटे पहिए का हथियार
बना लिया था)।
सब के द्वारा उपेक्षित मानव
मूल्य कहता है कि मैं रथ का
टूटा पहिया हूँ। मैं ब्रह्मास्त्रों
(अधर्म
और अत्याचार)
से
लड़ सकता हूँ। इसलिए मुझे
फेंको मत।
कवि
ने परोक्ष रूप में इस बात की
ओर संकेत किया है कि आज संसार
में टूटे मानव मूल्यों की
आवश्यकता है।
समाज
के इतिहास की गति सत्य और धर्म
के पथ को छोड़कर चले तो सच्चाई
को टूटे हुए पहियों का आश्रय
लेना पड़ता है। अर्थात पतन
के गर्भ में जानेवाली दुनिया
को मानव मूल्यों का आश्रय लेना
ही पड़ेगा। कवि के कहने का
तात्पर्य यह है कि आज के जो
उपेक्षित मानव मूल्य है,
हो
सकता है कल उनकी ज़रूरत हो।