2012, ഡിസംബർ 8, ശനിയാഴ്‌ച

          
आस्वादन टिप्पणी
मुफ़्त में ठगी

" मुफ़्त में ठगी " श्री .रामकुमार आत्रेय की कविता है। वे उपभोक्तवाद के शिकार आम जनता की चर्चा इसमें कर रहे हैं ।
बूढ़ा किसान कुछ बीज और रासायनिक खाद खरीदकर घर आता है। तब उसे मालूम होता है कि उसके तीनों बौरों में पाँच किलो ठगी भी हैं।वह शंका
समाधान करने के लिए व्यापारी के पास पहूँचता है- थके पाँवों को घसीटते हुए
तथा भूखा-प्यासा होकर । उसकी शंका यह थी कि उसे विश्वास के स्थान पर
ठगी क्यों दी गई । दूकानदार उसे समझाता है कि उसे ठगी मुफ़्त में दी है।
कोई पैसा वसूल नहीं किया है। दूकानदार वर्तमान व्यापार का परिचय देता है
कि अब हर चीज़ के साथ कुछ मुफ़्त मिलता है।जैसे, चाय के पैकेट के साथ
कप, टूथपेस्ट के साथ ब्रश आदि...किसान संतुष्ट होकर घर लौटता है।उसकी
चिंता यह थी कि मुफ्त में कुछ भी मिले फायदा ही होता है।चाहे वह ठगी ही क्यों न हो !
इस कविता में " किसान " देहाती आम आदमी का प्रतिनिधि है।" उपहार "
ठगी का प्रतीक है।यह छोटी-सी कविता बहूत संप्रेषणीय है। किसी भी पाठक के दिल को छूने की ताकत इसमें है।आजकल उपभोक्तावादी संस्कृति सौदागिरी के नए-नए तंत्र गढ़ती है।खरीदनेवाले को यह पता नहीं चलता कि उसने धोखा खाया है। प्रस्तुत कविता इस "ठगी " पर व्यंग्य करती है।

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