2013, മേയ് 19, ഞായറാഴ്‌ച


कविता का सारांश
हिंदी के अग्रणी कवि ज्ञानेंद्रपति की कविता है नदी और साबुन।इसमें आज की नदियों की दुस्थिति पर प्रकाश डालते है।
कवि पूछते है कि हे नदी, तू इतनी दुबली-पतली और मैली -कुचैली क्यों है?
मृत इच्छाओं की तरह मछलियाँ क्यों उतराई हैं अर्थात नदी के जल दूषित होने के कारण मछलियाँ मरकर जल के ऊपर आयी है।
कवि नदी से पूछते हैं कि तुम्हारे दुर्दिनों में अपने शुद्ध जल किसने हरा ?..
कलकल बहनेवाली तुम्हारे ऊपर किसने कलुष भरा ?..
फिर कवि कहते है कि जुठारनेवाले बाघों से तेरा जल कभी दूषित नहीं हुआ ।कछुओं की दृढ़ पीठों से उलीचा जाने पर भी तेरी सुलभता कम न हुई और हाथियों की जल
क्रीडाओं को भी तुम सानंद सहती रही है।
कवि अपना दुख प्रकट करके कहते हैं कि स्वार्थी लोगों के कारखानों से बहनेवाले
तेज़ाबी पेशाब भरे जल के कारण तेरा शरीर काला हो गया है।पवित्रता के प्रतीक के
रूप में हिमालय तुम्हारे सिरहाने पर होते हुे भी सफ़ाई के युद्ध में हथेली भर की एक साबुन की टिकिया से तुम हार गयी है।अर्थात शुद्धता की बात में नदी के जल के आगे साबुन है।
आज की नदियों की सच्ची हाल का सुंदर चित्रण यहाँ दिया गया है।

----------------------------------------------

അഭിപ്രായങ്ങളൊന്നുമില്ല:

ഒരു അഭിപ്രായം പോസ്റ്റ് ചെയ്യൂ