आस्वादन
टिप्पणी
नदी
का दैन्य
हिंदी
के अग्रणी कवि ज्ञानेद्रपति
की एक सुंदर कविता है-नदी
और साबुन ।
इसमें
आज की नदियों के दैन्य का वर्णन
है।
कवि
के मत में आज की नदियाँ दुबली
और मैली-कुचैली
हैं। इसमें मछलियों का
जीना
भी मुश्किल है।कवि नदियों से
कुछ प्रश्न पूछते हैं। "तुम्हारा
नीर किसने हरा?
और
"
कल-कल
में कलुष किसने भरा?”
आदि।जठरानेवाले
बाघों ने तुम्हारी कोई हानी
नहीं पहुँचायी थी। कछुओं के
दृढ़ पीठों से उलीचा जाकर भी
तेरी सुलभता में कोई कमी नहीं
हुई थी। हाथियों की जल-क्रीड़ा
को तुम सानंद सहती रही।
लेकिन
आज के स्वार्थी लोग कारखानों
से तेज़ाबी जल नदियों से बहाकर
उसे
प्रदूषित
कर देता है।कवि के मत में
शुद्धता का पर्याय नदियाँ
आज नकली शुद्धता
का
प्रतीक साबुन से हार गयी
है।अर्थात आज नदियों के जल
से शुद्ध है साबुन।
इसमें
आज की नदियों की सच्ची हालत
का वर्णन रोचक ढंग से कवि ने
किया है।सरल पदों से बनी यह
कविता भाषा की दृष्टि से भी
अच्छी है।"कल
कल में कलुष भरा "आदि
पंक्तियों की छटा मार्मिक ही
है। समकालीन समस्याओं पर
आधारित यह कविता प्रासंगिक
और चिंतापरक है।
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