2012, മേയ് 14, തിങ്കളാഴ്‌ച


आस्वादन टिप्पणी
जिओ और जीने दो
'नदी और साबुन ' समकालीन हिंदी कविता के अग्रणी कवि श्री ज्ञानेद्रपति की एक श्रेष्ठ कविता है।आपने समकालीन हिदी कविता को नया रूप प्रदान किया है।आप प्रकृति संसाधनों के संरक्षण के वक्ता है।
नही और साबुन नामक इस कविता में आपने मानव के अनियंत्रित हस्तक्षेप से मैली कुचैली और दुबली बन
जानेवाली एक नदी का चित्रण किया है।
कवि नदी को संबोधित करते हुए कहती है- है नदी, तुम क्यों इतनी दुबली बन गयी हो।तुम्हारा
जल विषलब्ध हो गया है।तुम्हारे प्रिय मछलियाँ मरी हुई आशाओं की तरह सदा के लिए समाप्त हो चुकी
है। नदी केलिए यह दुर्दिन है।बाघ जैसे जानवर नदीजल को चाटकर जूठा करते है। कछुआ अपने दृढ़
पीठ से पानी उलीचा करता रहता है।हाथी झुंड़ में आकर जल क्रीडाएँ करते है। कवि को विष्वास है इनमें नदी का जल कभी मैला नहीं बनता और कम नहीं होता।यह भी नहीं कछुआ ,बाग हाथी आदि जीवजंतु नदी
के सहचर है। उनकी ये प्रवृत्तियाँ नदी सानंद सह लेती है।कवि के मन में संदेह उड़ता है फिर कैसे नदी मैली कुचैली और दुबैली बनती है।अंत में कवि इस निर्णय पर पहुँचते कि मानव के अनियंत्रित हस्तक्षेप से
ही नदी की दुरवस्था होती है।
मानव के के संपर्क में आने पर नदी मैली कुचैली और दुबली हो जाती है। रेत खनन एक बड़ी समस्या है। यह नदी को दुबली बनाती है और छोर का सौदर्य नष्ट करता है। बड़े बड़े कारखानों से निकलनेवाला तेज़ाबी पेशाब जल के सातिविक गुण को नष्ट करता है। नदी का पानी शुभ्र एवं स्वच्छ है।
एक कारखाने के अम्ल गुणवाला पेशाब पानी के शुभ्र रंग बैंगनी रंग में बदल देता है। उसके सौन्दर्य को
नष्ट करता है। साबुन का भी यही प्रवृत्ति है।साबुन के मेल में आने से पानी का प्राकृतिक रंग ,सात्विक
गुण ,सौन्दर्य सब कुछ नष्ट होता है।अर्थात् नदी को साबुन के सामने हार मानना पड़ता है। बड़े शक्तिमान सात्विक गुणवाले वस्तुओं को तामसगुण केएक छोटी सी वस्तु के सामने पराजित होना पड़ता है।क्योंकि यह कलियुग है।
कविता भाव से संपन्न है और शिल्पगत विशेषताओं से भी संपन्न है। कविता में बिंब -प्रतीकों का
बोलबाल है। मरी हुई आशाएँ ,उतराई मछलियाँ ,हथेली भर के साबुन , तेज़ाबी पेशाब , शुभ्र त्वचा सब
बिंब-प्रतीक है।शुभ्रत्वचा के प्रयोग से प्रकृति में मानवीकरण भी हुआ है। यह सब समकालीन कविताओं
की विशेषताएँ हैं।


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