2012, മേയ് 14, തിങ്കളാഴ്‌ച


आस्वादन टिप्पणी
स़ञ्जीवनी से हालाहल की ओर
भारतीय संस्कृति प्रकृति की संपन्नता से से पनपी हुई है ।प्रकृति के जड़-चेतन वस्तुओं से हमारी संस्कृति की अटूट मित्रता है।पेड़-पौधे ,पशु-पक्षी,नदि-नाले पहाड़-समुद्र आदि का मानवीकरण करके हमारे पूर्वज एवं साहित्यकारों ने उनसे अपना नाता सुदृढ़ रखा ।लेकिन आज कल की लालची संस्कृति उनकी जड़ों में कुल्हाड़ी डालकर अपनी जेबेंभरती रहती है।आप के समाज की इस वास्तविकता का नग्नचित्र हमारे सामने खुला दिखाते है-नदि और साबुन कविता के द्वारा विख्यात एवं समकालीन कवि ज्ञानेद्रपति ने। समाज के लालच के कारण जल-स्थल संसाधनों के प्रबंध में वैज्ढानिकता का अभाव जानबूझकर हुआ है।

अनेक भारतीय संस्कृतियों से संपन्नित हमारी नदिटों की आज की दुबली मैली-कुचली दशा देखकर कवि स्वयं रोते हैं।सबको जलाये रखनेवाली उसकी बुँदें आज मछलियों को हालाहल जैसी है।बाघ ,हाथी,कछुए आदि नदी में जल-क्रीड़ाएँ अवश्य करते हैं। लेकिन इससे कोई खराब न होता । कहावत तो ठीक ही है। माँ के
दबन से बच्चा न मरेगा। इससे नदी पुलकित होती है।
आज स्वार्थी मानव की लालच के प्रतीक कारखानों से अपने मन के कलंक कूड़ा-कचड़ा विषैली जल
आदि से हमारी नदियाँ प्रदूषित होती जा रही है। इससे नदी की निर्मलता पर दाग पड़ गया । सभी को निर्मल बनानेवाली सभी प्रकार भारत के रखवारे हिमालय की पुत्री होते हुए भी एक साबुन की टिकिया के आगे हार होती है।
समकालीन समस्या पर आधारित इस कविता की अनेक विशेषताएँ होती है। नदी यहाँ शोषित समाज का प्रतीक है एवं साबुन शोषक का प्रतीक है।मरी हुई इच्छाओं की तरह मछलियाँ उतराई , शुभ्र त्वचा ,तेज़ाबी पेशाब आदि का प्रयोग कविता की शोभा बढ़ाती है।प्रकृति ने जो जल -स्थल संसाधनों का दान दिया है, आज कल उसका वैज्ञानिक आयोजन नहीं होता है।आम तौर पर देखें तो कविता प्रासंगिक ही है।

( Tom c.Devasia)

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