समकालीन हिंदी कविता वर्तमान सामाजिक संदर्भों और समस्याओं के प्रति सतर्क है। प्रतिबद्धता की ऎसी कविताओं की रचनाधर्मिता के प्रमुखहस्ताक्षर है-ज्ञानेद्रपति।
नदी और साबुन - प्रकृति के प्रदूषण को उजागर करती है। नदियों के अतीत की याद दिलाते हुए कवि वर्तमान की दुबली पतली दशा पर आहें भरते हैं। प्रवाह के शुरू के दौर में नदी की धार में तेज़
और ओज थी। उसके पानी में स्वच्छता और ताज़गी थी।लेकिन बहते-बहते नदी का साफ़ -सुथरा बहिरंग और अंतरंग धीरे-धीरे मैला-कुचैला हो गया है।कहावत है- बहता पानी निर्मला। लेकिन यहाँ उसका उल्टा ही नज़र आता है।कल-कल की मिठास की सुरीली आवाज़ में विष की कटुता की सघनता भर गई।
बाघों ,कच्छुओं या यहाँ तक कि हाथियों की वजह से पानी न कलुषित हुआ और न तो कम।लेकिन नदी का वर्तमान कितना बिगड़ गया है।धन के लालची और स्वार्थिलोगों ने नदी के किनारे कारखाना बना दिया है।उनसे बह आनेवाले दूषित अम्ल जल को नदी सालों से झेलती आ रही है।आखिर नदी के निर्मल पानी की त्वचा बैंगनी हो गई।
भारत के ज्यादातर नदियाँ हिमालय से निकलती हैं। भारत के सिरहाने हिमालय एक ताकतवर प्रहरी की तरह खड़ा हैव- किसी भी चुनौती या खतरे का मुकाबला करने को तैनात।अनेकानेक आक्रमणों
और युद्धों में इसी हिमालय ने भारत को बचाया था। लेकिन - हथेली भर की साबुन की टिकिया - से
नदी अब हार जाती है।
ज्ञानेद्रपति ने प्रस्तुत कविता में कई प्रतीकों और बिंबों के सहारे नदी के गत और आगत रूप-रंग के दिशांतरों को दर्शाया है।
विसंगति की बात है कि नदी के पानी को प्रदूषित करते समय इंसान अपनी ज़िम्मेदारी को समझता
भी नहीं।बाघ जुठराते हैं ,लेकिन पानी कलुषित नहीं होता। हाथी जल से क्रीड़ा करते हैं तब नदियाँ
मस्ती ही महसूस करती हैं।मतलब है कि जानवरों ने पानी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा। पर इंसानों ने नदी का सत्यनाश कर डाला है।
नदी और साबुन - कविता को वर्तमान के एकाधिक संदर्भों में विश्लेषित किया जा सकता है।
निम्नलिखित संद्रभों में बहुआयामी अर्थ-छवियाँ निकल सकती हैं।
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