2015, ഡിസംബർ 12, ശനിയാഴ്‌ച

 ASWADAN  TIPPANI  

                                          

आस्वादन टिप्पणी
                             मध्यप्रदेश के  ग्वालियोर में जन्मे नरेश सकसेना समकालिन हिंदी कविता के समर्पित
कार्यकर्ताओं की अग्रिम पंक्ति में हैं।  "इस बारिश में " नामक आपकी कविता में किसान की ज़मीन छिन जाने की कथा है। यह एक किसान का बारिश के मौसम का शोकगीत है।आकाश में कई दूर छा जानेवाले बादलों को
देखकर किसान आह भरता है।अपनी ज़मीन छिन जाने पर किसान खेती न कर सकता  । भूमंडलीकरण
के दौर के किसानों की सिसकियाँ यहाँ हम देख सकते हैं।इस कविता के द्वारा कवि किसान लोगों की  त्रासदी
की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। कवि का कहना है कि अब बारिश भी ज़मीन के पीछे चली गई है।
धरती की छाती से सौंधी सुगंध भी छिन गई  मिट्टी के लिए उठती है। अब किसान के लिए हल और बैल नहीं ,
खेतों के बीच का रास्ता नहीं , कहीं हरियाली की बूँद भी दिखाई न देता। किसान के जीवन का ताल ,
प्रतीक्षा का नक्षत्र  सब नष्ट हो चुकी है। फसल होने पर कर्ज चुकाने की किसान की प्रतीक्षा भी नहीं रह गई।
         किसान की अपनी खेत -खलिहानों से दूर रहने की विवशता इस कविता में हम देख सकते हैं।ज़मीन छिन जाने पर किसान भयानक शोषण का शिकार बन जाता है।कवि इस कविता द्वारा यही कहना चाहचा है।
        एक कविता तभी समसामयिक मानी जाती है जब वह तत्कालीन समस्याओं का संबोधन करती है।
"इस बारिश में " नामक यह कविता इस कसौटी पर खरा उतरता है।

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