सकुबाई से सफाई घर की भी, दिल की भी
नाटक में आप जितने
भी प्रयोग कर लें,
पीरियड ड्रामा ले
आएं, ड्रामे
के माध्यम से आप राग रंग,
नट भाव,
उपमा,
उपमान की बातें
बताएं, सच
तो यह है कि आम आदमी नाटक के
उन्हीं हिस्सों से जुड़ पाता
है, जिसके
साथ वह अपना जीवन देख पाता
है। पौराणिक आख्यानों में
भी वह वहीं तक पहुंचता है,
जहां उसे आज का अपना
समाज, परिवेश
दिखाई देता है। ऐसे में सामजिक
या यों कहें कि घरेलू पृष्ठभूमि
पर खेले गये नाटक से दर्शक
तुरंत अपना नाता जोड़ लेते
हैं। एकजुट थिएटर ग्रुप
प्रस्तुत नादिरा ज़हीर बब्बर
लिखित व निर्देशित नाटक
“सकुबाई” नाटक एक ऐसी ही रचना
है, जिसमें
घर-घर
काम करनेवाली बाई सकुबाई के
माध्यम से समाज में एक साथ ही
जी रहे नाना वर्गों के नाना
जीवन को देखे जाने की कोशिश
है। साथ ही साथ खुद उसके अपने
जीवन की भी। एक आम मध्य या उच्च
वर्ग और तथाकथित निम्न वर्ग
में कोई फर्क़ नहीं रह जाता,
जब मामला प्रेम,
सेक्स,
घरेलू हिंसा,
बलात्कार,
आपसी जलन आदि पर
आता है, बल्कि
कई बार तो ये तथाकथित निम्न
वर्ग के लोग इन संभ्रांत लोगों
पर भारी पड़ जाते हैं। क्या
फर्क़ रह जाता है सकुबाई या
उसकी मालकिन में कि दोनों के
ही पति के विवाहेतर संबंध
हैं। विरोध करने पर आर्थिक
रूप से आत्मनिर्भर मालकिन
भी पति के हाथों बुरी तरह पिटती
है, मगर
बच्चों की खातिर घर नहीं छोड़
पाती। मगर, फर्क़
है। सकुबाई के पति के संबंध
जग जाहिर हैं। मालकिन के पति
के संबंध सामाजिकता की खोल
में छुपा। नौकरानी हो कर भी
सकुबाई इतनी ईमानदार है कि
मालकिन अपना पूरा घर उसके ऊपर
छोड़ देती है, जबकि
उसी मालकिन की करोड़पति सहेली
मालकिन के पर्स से उसके हीरे
की अंगूठी चुरा लेती है। मुंबई
में आपको ऐसी ईमानदार बाइयों
की फौज़ मिलेगी। बल्कि यूं
कहें कि जिस तरह हर सफल पुरुष
के पीछे किसी स्त्री का हाथ
होता है, उसी
तरह हर सफल औरत के पीछे उसकी
बाई का हाथ होता है।
एकपात्रीय नाटक को कुशलतापूर्वक डेढ़ घंटे तक खींच ले जाना किसी समर्थ कलाकार की ही खासियत है और यह विशेषता निस्संदेह सकुबाई की भूमिका में सरिता जोशी की है। सरिता जोशी गुजराती थिएटर और फिल्म की मशहूर और बड़ी कुशल, इसलिए सफल अभिनेत्री हैं। वे लगभग 45 सालों से भी अधिक समय से अभिनय के क्षेत्र में हैं। एकपात्रीय अभिनय में सब कुछ उसी पात्र को दर्शाना होता है और सरिता जोशी ने मालिक से लेकर अपने पति और बूढ़ी मां की भी भूमिका बड़ी कुशलता से निभायी है। तदनुसार आवाज़, शारीरिक भंगिमा, चेहरे पर भाव। हालांकि उम्र अपनी छाप उन पर छोड़ने लगी है। बीच-बीच में वे हांफ जाती रहीं, संवाद भी लगा कि कुछ भूलती सी रहीं। मगर यह उनकी नाट्यकुशलता ही थी कि इसे उन्होंने ज़ाहिर नहीं होने दिया।
यह नाटक 1999 में पृथ्वी फेस्टिवल में ओपन हुआ था। तब से इस नाटक के कई शो हो चुके हैं। नादिरा बब्बर के यह भी पुराने नाटकों मे से एक है, जिसमें उनकी पुरानी मेहनत व प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखाई देती है। सेट प्रभार, स्टेज और प्रोडक्शन सभी में हनीफ पटनी ने अपनी कुशलता दिखायी है। फिर भी, नाटक के दस साल हो जाने के कारण सेट अब पुराने हो चुके हैं, जो स्टेज पर भी दिखते हैं। प्रकाश व्यवस्था नाटक के अनुरूप थी और संगीत संचालन एक्टर को अभिनय के साथ-साथ डांस करने व अन्य हाव-भाव के लिए पर्याप्त स्पेस देता है। “दयाशंकर की डायरी” की तरह ही यह नाटक आपको अपने से जोड़ कर रखता है, बल्कि कुछ अधिक ही, क्योंकि आखिरकार यह एक महिला की लिखी, महिला की ज़ुबानी, महिला की गाथा है, और महिला की कहानी में प्रताड़णा के भाव तनिक अधिक तो रहते ही हैं, जिसमें व्यक्ति और परिवेश दोनों की ही भूमिका रहती है। इसलिए यह नाटक हो सकता है आपको “दयाशंकर की डायरी” से अधिक अपील करे, जैसा कि इसने यहां के दर्शकों को किया था।
एकपात्रीय नाटक को कुशलतापूर्वक डेढ़ घंटे तक खींच ले जाना किसी समर्थ कलाकार की ही खासियत है और यह विशेषता निस्संदेह सकुबाई की भूमिका में सरिता जोशी की है। सरिता जोशी गुजराती थिएटर और फिल्म की मशहूर और बड़ी कुशल, इसलिए सफल अभिनेत्री हैं। वे लगभग 45 सालों से भी अधिक समय से अभिनय के क्षेत्र में हैं। एकपात्रीय अभिनय में सब कुछ उसी पात्र को दर्शाना होता है और सरिता जोशी ने मालिक से लेकर अपने पति और बूढ़ी मां की भी भूमिका बड़ी कुशलता से निभायी है। तदनुसार आवाज़, शारीरिक भंगिमा, चेहरे पर भाव। हालांकि उम्र अपनी छाप उन पर छोड़ने लगी है। बीच-बीच में वे हांफ जाती रहीं, संवाद भी लगा कि कुछ भूलती सी रहीं। मगर यह उनकी नाट्यकुशलता ही थी कि इसे उन्होंने ज़ाहिर नहीं होने दिया।
यह नाटक 1999 में पृथ्वी फेस्टिवल में ओपन हुआ था। तब से इस नाटक के कई शो हो चुके हैं। नादिरा बब्बर के यह भी पुराने नाटकों मे से एक है, जिसमें उनकी पुरानी मेहनत व प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखाई देती है। सेट प्रभार, स्टेज और प्रोडक्शन सभी में हनीफ पटनी ने अपनी कुशलता दिखायी है। फिर भी, नाटक के दस साल हो जाने के कारण सेट अब पुराने हो चुके हैं, जो स्टेज पर भी दिखते हैं। प्रकाश व्यवस्था नाटक के अनुरूप थी और संगीत संचालन एक्टर को अभिनय के साथ-साथ डांस करने व अन्य हाव-भाव के लिए पर्याप्त स्पेस देता है। “दयाशंकर की डायरी” की तरह ही यह नाटक आपको अपने से जोड़ कर रखता है, बल्कि कुछ अधिक ही, क्योंकि आखिरकार यह एक महिला की लिखी, महिला की ज़ुबानी, महिला की गाथा है, और महिला की कहानी में प्रताड़णा के भाव तनिक अधिक तो रहते ही हैं, जिसमें व्यक्ति और परिवेश दोनों की ही भूमिका रहती है। इसलिए यह नाटक हो सकता है आपको “दयाशंकर की डायरी” से अधिक अपील करे, जैसा कि इसने यहां के दर्शकों को किया था।
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