2012, ജനുവരി 26, വ്യാഴാഴ്‌ച

   प्रहसन
          अंधेर नगरी


      भारतेन्दु हरिचंद्र कृत यह प्रहसन अत्यंत प्रसिद्ध और लोकप्रचलित है। इसमें तीन अंक हैं। पहले अंक में एक महंत अपने दो शिष्यों , नारायणदास  और गोवर्धनदास में से दूसरे को भिक्षा मांगने के संबन्ध में अधिक लोभ न करने का उपदेश देता है। दूसरे अंक में बाज़ार के विभिन्न व्यापारियों के दृश्य हैं जिनकी माल बेचने केलिए लगायी गयी आवाज़ों में व्यंग्य की तीव्रता है। शिष्य बाज़ार में हर चीज़ टके सेर पाता है और नगरी और राजा का नाम ज्ञातकर और मिठाई लेकर महंत के पास वापस आता है। गोवर्धनदास से नगरी का हाल मालूमकर वह ऎसी नगरी में रहना उचित न समझ वहाँ से चलने के लिए अपने शिष्यों से कहता है।किंतु गोवर्धनदास लोभ के वशीभूत होकर वहीं रह जाता है और महंत तथा नारायणदास चले जाते है। पीनक में बैठा राजा एक फरियादी की बकरी मर जाने पर कल्लू बनिया , कारिगर ,चूनेवाला  ,भिश्ती , कसाई और गड़रिया को छोड़कर अंत में अपने कोतवाल को ही फँासी की सजा देती है। क्योंकि अंततोगत्वा उसके सवारी निकलने से ही बकरी दबकर मर गई।कोतवाल की गर्दन फाँसी के फँदे में ठीक बैठे ।अब उसे अपने गुरू की बात याद आती है।
जब वह फाँसी पर चढ़ाया जाने को है तब गुरुजी और नारायणदास आ जाता है।गुरुजी गोवर्धनदास के कान में कुछ कहते हैं और उसके बाद दोनों में फाँसी पर चढ़ने के लिए
होड़ लग जाती है।इसी समय राजा, मंत्री और कोतवाल आते हैं।गुरुजी के यह कहने पर कि इस शुभ घड़ी में जो मरेगा,वह सीधा स्वर्ग जाएगा। गोवर्धनदास और कोतवाल में फँासी पर चढ़ने के लिए होड़ उतत्पन्न हो जाती है।किंतु राजा के रहते कौन स्वर्ग जा सकता है। ऎसा कहकर राजा स्वयं फाँसी पर चढ़ जाते है।जिस राज्य में विवेक – अविवेक का भेद न किया जाय , वहाँ की प्रजा सुखी नहीं रह सकती, यह व्यक्त करना इस प्रहसन का उद्देश्य है।

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